भोग से पाप वाया वासना : बौध एक्सप्रेस

इंडियन फिलोसफी
ब्लॉग के एक आर्टिकल में पढ़ा की बौध धर्म में समलैंगिकता का विरोध भारत में पहले
से मौजूद व्यापक हेय दृष्टि ही थी। मेरा ऐसा मानना नहीं है। जब काम को भोग
माना तो काम के विषय पे चिकत्सिय पाबंधियो के अलावा और कुछ विरोध समझ नही आता। भोग में कुछ भी
अच्छा लग सकता है। एसा संतुलित समाज समलैंगिकता के खिलाफ नहीं जा सकता। भारत का स्वरूप वैसा ही होगा जैसा काम उन्मुक्त
जन जातियों का या प्राचीन यूनान का। प्राचीन यूनान की ही तरह
यहाँ भी नर से नर का सम्बन्ध बुरा नहीं माना जाता होगा जबतक वह अन्य सामाजिक
बन्धनों के अनुरूप हो।
संघो की स्थापना
के बाद, मठवासियो को किसी प्रकार की भी काम रूचि पे प्रतिबन्ध था। काम निर्वाण में
बाधा है अतः पाप था। इंडियन फिलोसफी ब्लॉग में कहा गया है की इस प्रकार तो विषमलैंगिक
सम्भोग ज्यादा पापी होना चाहिये क्योंकि उससे परिवार शुरू हो सकता है जो निर्वाण
में ज्यादा अवरोधक है। लेकिन ऐसा हुआ नही। इसका जवाब उसी आर्टिकल
में है। बौध मठों में किसी भी प्रकार की काम जिज्ञासा एक पाप था। मठ तक में तो सही पर जब
ये मठ के नियम (जैसा की इंडियन फिलोसफी ब्लॉग में भी कहा गया है) साधरण जनता के
नेतिक व्यव्हार में लाये जाने लगे तब मुसीबत शुरू हुई। सभी
प्रकार के सम्भोग पाप तो थे पर साधारण जनता के लिए एक ‘योनी सम्भोग’ को पाप श्रेणी से हटाना ही पड़ा। बाकियों के पापी रहने से कोई वांशिक अथवा व्यावहारिक विप्पति नहीं थी।
बौध ग्रंथो में
मिलता है की कैसे संघो में पन्दको को आना मना था और जो आ चुके थे उन्हें चुन के बाहर
निकाला गया था।
फिर यही संघई
नेतिकता भारत के आने वाले विचारों में घुल गयी और धीरे धीरे विक्टोरियाई नेतिकता
का सहारा पा कर एक काम सकारात्मक समाज को अति नकारात्मक बना दिया। आज भारत का जो काम नकारात्मक स्वरुप है वो भगवान् बुद्ध, महावीर और आगे आने
वाले ब्रह्मचारी सन्यासियों के कारण ही है।
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