Thursday, 10 December 2015

भोग से पाप वाया वासना : बौध एक्सप्रेस

भोग से पाप वाया वासना : बौध एक्सप्रेस


बुद्ध घर बार छोड़ ध्यान में थे, (या सो रहे थे किसे पता?) मर आया वह अपने साथ काम लाया था पर वह बुद्ध का ध्यान भंग न कर सका, बुद्ध सोते रहे और काम हार गया वह मर गया
समाज को दो प्रकार में विभाजित कर सकते है काम सकारात्मक और काम नकारात्मक एक ऐसे समाज की कल्पना करीए जहा नर का नर से सम्बन्ध को हेय दृष्टि से न देखा जाता हो कुछ कुछ प्राचीन यूनान की तरह एसा समाज केवल काम संतुलित ही हो सकता है जहा काम को सिर्फ एक भोग समझा जाता हो कुछ कुछ पूर्व बौद्धिक भारत की तरह आज का भारत काम नकारात्मक समाज है जैसा की पश्चिम भी था और ज्यादा हद तक अभी भी है लेकिन कामसूत्रआदि ग्रन्थ किसी काम नकारात्मक समाज के नहीं लगते महाभारत आदि भी काम संतुलित समाज को ही दर्शाते है वेद को काम सकारात्मक कह सकते है और कुछ आगम शास्त्रों को तो काम उल्लासक सर्वलान्करण में भारतीय समाज काम संतुलित ही था और कहीं – कहीं काम सकारत्मक भी पहले काम को भोग समझा जाता था यह एक संतुलित सोंच थी आज के समाज में जहा काम को इतना हीन समझा जाता है, ऐसा विचार काम सकरात्मक ही लगेगाभोग से नुक्सान भी हो सकता है भोग वासना को जन्म देती है चिक्तसिय तौर पे वासना पे काबू पाना होगा वह एक चिकत्सिय विकास था फिर एक ऐसे धार्मिक और सामाजिक आन्दोलन की कल्पना करिए जो काम को केवल वासना समझे, जैसा श्रमण आन्दोलन। कुछ कुछ बौध धर्म जैसा जो काम को निर्वाण में बाधा समझता है।
इंडियन फिलोसफी ब्लॉग के एक आर्टिकल में पढ़ा की बौध धर्म में समलैंगिकता का विरोध भारत में पहले से मौजूद व्यापक हेय दृष्टि ही थी मेरा ऐसा मानना नहीं है जब काम को भोग माना तो काम के विषय पे चिकत्सिय पाबंधियो के अलावा और कुछ विरोध समझ नही आता भोग में कुछ भी अच्छा लग सकता है एसा संतुलित समाज समलैंगिकता के खिलाफ नहीं जा सकता  भारत का स्वरूप वैसा ही होगा जैसा काम उन्मुक्त जन जातियों का या प्राचीन यूनान काप्राचीन यूनान की ही तरह यहाँ भी नर से नर का सम्बन्ध बुरा नहीं माना जाता होगा जबतक वह अन्य सामाजिक बन्धनों के अनुरूप हो
संघो की स्थापना के बाद, मठवासियो को किसी प्रकार की भी काम रूचि पे प्रतिबन्ध था काम निर्वाण में बाधा है अतः पाप था इंडियन फिलोसफी ब्लॉग में कहा गया है की इस प्रकार तो विषमलैंगिक सम्भोग ज्यादा पापी होना चाहिये क्योंकि उससे परिवार शुरू हो सकता है जो निर्वाण में ज्यादा अवरोधक है लेकिन ऐसा हुआ नही इसका जवाब उसी आर्टिकल में है बौध मठों में किसी भी प्रकार की काम जिज्ञासा एक पाप था मठ तक में तो सही पर जब ये मठ के नियम (जैसा की इंडियन फिलोसफी ब्लॉग में भी कहा गया है) साधरण जनता के नेतिक व्यव्हार में लाये जाने लगे तब मुसीबत शुरू हुई सभी

प्रकार के सम्भोग पाप तो थे पर साधारण जनता के लिए एक ‘योनी सम्भोग’ को पाप श्रेणी से हटाना ही पड़ा बाकियों के पापी रहने से कोई वांशिक अथवा व्यावहारिक विप्पति नहीं थी
बौध ग्रंथो में मिलता है की कैसे संघो में पन्दको को आना मना था और जो आ चुके थे उन्हें चुन के बाहर निकाला गया था
फिर यही संघई नेतिकता भारत के आने वाले विचारों में घुल गयी और धीरे धीरे विक्टोरियाई नेतिकता का सहारा पा कर एक काम सकारात्मक समाज को अति नकारात्मक बना दिया। आज भारत का जो काम नकारात्मक स्वरुप है वो भगवान् बुद्ध, महावीर और आगे आने वाले ब्रह्मचारी सन्यासियों के कारण ही है।


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